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शनिवार, 28 अप्रैल 2012

श्रद्धा आती है और पता नही कहाँ खो जाती है

Faith
हम लोग टीवी में भजन सुनते हैँ मै टीवी का उदाहरण इसलिये दे रहा हँू क्योंकि वहाँ आजकल ऐसे ऐसे भजन आते हंै जो  इमोशनली लोगों को भगवान को पूजने पर जोर देते हैं कोई कहता है कहाँ है तू प्रकट हो भगवान, तूझे प्रकट होना ही पड़ेगा। और पता नही क्या बोल मुझे अभी याद नही आ रहे। इन भजनों में एक सीरियल की तरह दिखाया जाता है कि कैसे भगवान के सामने नाचने गाने , आंसू बहाने से भगवान मुरादें पूरी कर देते हैं। लोग भी इन्ही भजनों का अनुसरण करते हैं और पहुंच जाते हैं बन-ठन के भगवान के मंदिर। अपने शहर के ऐसे मंदिर को चुनते हैं जो कि फेमस हो जहाँ बहुत भीडृ होती हो । और वहाँ ढेर सारी आगरबत्ती जला कर, नारियल चढ़ा कर तेल आदि से आरती पूजा अर्चना कर भगवान से कहते हैं, जिसे मानता कहते हैं कि भगवान अगर मेरा फलां काम हो गया तो आपको इतने किलो लड्डू चढ़ावा चढ़ाऊंगा या एक चुनरी या फिर अपने सर के बाल मुड़ा दूंगा आदि। इन सब कर्मकांडों से ये तो सिद्ध होता है कि हम भगवान को नही चाहते भगवान से बहुत कुछ चाहते हैं। जबकि जो हम मांग रहें हैं छोड़कर यही जाना है खाली हाथ।

माँ पार्वती साक्षात् श्रद्धा हैं जिन्होंने कुछ पाने के लिये नही अपितु शिवजी के चरणों की दासी बनने के लिये तप किया और एक लम्बे समय तक तप करतीं रही लेकिन फिर भी उन्हें शिवजी ने दर्शन नही दिये अंत में भगवान शिव ने ही वेश बदल कर उनको तपस्या न करने के लिये उकसाया और लेकिन फिर भी उनकी श्रद्धा नही डगमगाई अंत में शिवजी ने उन्हें अपने चरणो ंकी दासी और अर्धांगनी बना लिया। जबकि हमारी कोई मानता या मनोती अगर पूरी न हो तो हमारी श्रद्धा पता नही कहाँ चली जाती है और हम भगवान को कोसने लगते हैं अपने भाग्य को भी। और दूसरे किसी मंदिर कि ओर भागते हैं जहाँ अधिकतर लोगों की मनोकामना पूर्ण हो जाती है। बचपन से लेकर जवानी और बुढावे तक हम केवल मांगा मूगी में ही पूजा करते हैं भगवान ये दे देना, वो दे देना आदि। और अंत समय जब आता है तब याद आता है कि हम गलत थे। जो मिला हम उससे भी अच्छा अपने कर्मों से पा सकते थे, हम नादानों की तरह, मूढ़मति होकर इधर उधर भागते रहे पूरी जिंदगी। जिनके लिये हमने स्वयं को पैसा कमाने के लिये निचोड़ डाला वे सब अपनी निजी जिन्दगी में व्यस्त हैं और हम हैं कि अभी भी लगे हैं मांगने। हमारा जो मै और मेरा और मेरे लिये, ये सबसे बड़ी बाधा है श्रद्धा को निरंतर बनाये रखने के लिये। गौतम बुद्ध के शिष्य थे आनंद जो कि उनके ही चचरे भाई थे और उम्र में भी उनसे बड़े थे जिन्होंने न जाने कितनी बार बचपन में अपने बडेÞ भाई का रोब जमाया होगा उन पर और उन्हें निर्देशित भी किया होगा किसी कार्य के लिये। और जब वे गौतम बुद्ध के शिष्य बने तब भी उनके अंदर किंतु और परंतु वाले प्रश्न उठते रहते थे। जबकि जो गौतम बुद्ध के अन्य शिष्य थे उनके अंदर का दीया जल चुका था वे लेकिन आनंद के साथ ऐसा कुछ नही हुआ। वे एक दिन आँखो में अश्रु लिये भगवान गौतम बुद्ध से कहते हैं कि क्या कारण है कि मुझे आपकी कृपा नही प्राप्त हो पा रही, मेरा अंदर का दीया क्यो नही जला अब तक क्यो मेरी समाधि नही लगती। बुद्ध ने कहा कि जिस दिन मेरी अंतिम यात्रा होगी, जब मै यह शरीर त्यागूंगा उस दिन तुम्हारा दीया अवश्य जलेगा। क्योंकि अभी मेरी कृपा तुम्हारे अहं के कारण बाधित हो रही है। और जिस दिन बुद्ध ने शरीर का त्याग किया उस दिन एकदम जैसे कोई हमें अलविदा कहकर चला जाता है और उसके जाने के बाद हमारे अंदर एकदम से जागृति होती है और हम सोचते हैं कि अरे ये क्या होगया, जैसे हम एक गहरी नींद से हड़वड़ा कर जागते हैं और किसी विशेष कार्य के लिये भागते हैं उसी तरह उस दिन आनंद का ध्यान एकदम से लग गया उनकी आँखों से अश्रु बह निकले। हमारी स्थिति भी यही है जब बचपन में होते हंै तो जवानी का इंतेजार होता है और जब जवानी में कष्ट भोग रहे होते हैं, संघर्ष कर कुछ उस्ताने के लिये बैठने का विचार करते हैं तभी न जानें कब बुढ़ापा   दस्तक देता और आ भी जाता है पता ही नही पड़ता। गीता में भगवान ने कहा है जो निरंतर मेरा ही ध्यान करता है जो हर पल मुझसे जुड़ा होता है उसे मै प्राप्त होता हंू। मुझे योग और तप से मेरा भक्त पा सकता है।
यहाँ योग का तात्पर्य भगवान से जुड़ना और आध्यात्मिक भाषा में निरंतर वेद, पुराणों, उपनिषद आदि और गीता के अध्ययन के द्वारा हमें परमात्मका के भक्तों के जीवन और परमात्मा को जानने के लिये निरंतर रत रहना होगा। साथ ही साथ ध्यान का भी अभ्यास अपने गुरू के द्वारा बताये गये मार्गदर्शन में करना होगा। हमें अपने अहं को त्यागना होगा मनमंथन करना होगा। कृपया इसे किसी भाषण की तरह न लें। हमें स्वयं को जानने के लिये अपने  अंदर छुपी हुई शक्तियों जागृत करना होगा। हमें अपने वर्तमान व्यक्तित्व को पीछे छोड़ते हुये कर्म करते हुए ही अपनी खोज आज से ही शुरू करनी होगी । अब आप सोच रहें होंगे कि आखिर करें कैसे। पहले और सबसे जरूरी चीज है ध्यान और प्राणायाम और निरंतर ज्ञान, सत्संग और बुद्धि से ऊपर उठकर एक समझ पैदा कर। जैसे बुद्धिमान तो कंस और दुर्योधन भी थे भगवान ने स्वयं जाकर उन्हें समझाया लेकिन उनके  समझ कुछ नही आया क्योंकि उनका अहं बहुत बड़ी बाधा था । सोचिये कि यदि स्वयं भगवान जिसे समझायें और जो मूढ़मति न समझने की कोशिश करें उसका अहं कितना होगा। जब तक सच्ची श्रद्धा हमारे अंदर न हो तब यदि भगवान भी हमारे सामने हो तो हमारा कल्याण नही हो सकता। श्रद्धा से युक्त होकर यदि एक पत्थर को पूजें तो मनचाहा फल मिल जाता है। एक तरफ  दुर्योधन जिसमे अहं था और दूसरी तरफ अर्जुन जिसके अंदर कृष्ण भगवान के प्रति श्रद्धा का सागर था। श्रद्धावान लभते ज्ञानम्। ये याद रखें और बढ़ते रहे अपने जीवन को जीते हुए स्वयं और परमात्मा की खोज में।
अब तप के विषय में समझें जैसे किसी कच्ची मिट्टी की बनी ईंटों   को यदि बिना भट्टी में तपाये हम किसी मकान का निर्माण इन ईंटों  से कर दें तो वर्षा में या धीरे धीरे एक दिन वह मकान ढह जायेगा और यही ईंटें भट्टी में पका कर निर्माण में उपयोग करें तो अपने आस पास देखें कितनी गंगनचुम्बी और रिकार्ड तोड़ने वाली बहुमंजिला इमारतें दिखाई देंगी।  जब जीवन में दुख, मुसीबते आती हैं वो हमें उनसे भागना नही चाहिये, रोना-धोना छोड़ जागना चाहिये अपनी बुद्धिमत्ता के अलावा एक समझ विकसित कर कुछ सिखना चाहिये, फार्मूलें विकसित करना चाहिये मुसीबतों से सुलझने के लिये। हमें जीवन में कुछ नियम बनाने होंगे जो कि तप की श्रेणी में आते हैं जैसे शाकाहार से भी आगे सात्विक भोजन कम मिर्च, मसाला, काम वासना के प्रति उदासीनता, विरोध को विनोद से, तय घंटों की नींद, निराधार वार्तालाप से बचना, मौन में रहना, बुरी संगती, सतत संतुष्टि -जो है उसी में खुश रह कर बढ़ते रहो। आदि।
मैने एक प्रयास किया है जहाँ हम अपने आध्यात्मिक ज्ञान को बढा सकते हैं यहाँ क्लिक करें http://rupaantar.blogspot.in/

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